"मैं तुमसे कह-कह के थक चुकी हूँ । अब तो चाहे जो हो जाए पर इस बार तो मैं गंगा नहा के रहूंगी । मैं जब भी तुमसे तीर्थ-धाम कराने को कहती हूँ, तुम्हारी तो जेब ही सूख जाती है । तुम्हे जरा विमला के पति से सीखना चाहिए उसने न जाने कितनी बार उसे तीर्थ यात्राएँ कराई हैं । शायद ही ऐसा कोई धाम बचा होगा जहां वे ना गए हो"
"अच्छा-अच्छा ठीक है इस बार मैं तुम्हें जरूर ले चलूंगा । अब ज्यादा दिमाग मत खाओ"
(सतीश अपनी पत्नी उषा से कहता है)
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वक्त के साथ उषा का सपना सच होता हैं उसका पति सतीश उसे लेकर कुंभ स्नान को निकल पड़ता है । कुंभ का स्नान कराने के बाद वे ढेर सारे तीर्थ स्थलों की यात्राएं भी करते हैं । इस लंबी और थका देने वाली यात्रा के बाद उषा अब घर वापस लौट रही है ।
यद्यपि उषा की, कई वर्षों की मनोकामना आज पूरी हो गई है परंतु बावजूद इसके, उषा के चेहरे पर वो खुशी नही है जो होनी चाहिए । वह बड़ी ही उदास मुद्रा मे ट्रेन में बैठे, खिड़की से बाहर तेजी से पीछे भाग रहे हरे-भरे मैदान और पेड़ों को देख रही है ।
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असल में तीर्थ स्थलों पर बैठे भगवान के ठेकेदारों द्वारा जो लूट उसने वहां देखी है उससे उसका मन काफी दुखी है । वह सोचती है
"भला कैसे-कैसे लोग हैं इस दुनिया में है जो भगवान की चौखट पर बैठ ऐसी अंधी लूट मचा रखें हैं । इन्हें इतना भी भय नहीं कि आखिर एक दिन इन सब कि हिसाब इन्हें ईश्वर को देना होगा"
इसी बीच ट्रेन अगले स्टेशन पर पहुंच जाती है जहां से उषा को अब दूसरी ट्रेन पकड़नी है । उषा दूसरी ट्रेन के इंतजार में सतीश के साथ चादर बिछाकर स्टेशन पर बैठ जाती हैं तभी लगभग 10-12 साल की सांवली-सांवली सी लड़की पीछे से उषा का आंचल खींचती है उषा उसे पलट कर देखती है । वह लड़की उषा से कुछ पूछना चाहती है वह कहती है
"क्या यह ट्रेन गया को जाएगी"
तब उषा उससे कहती है
"नहीं-नहीं, ये ट्रेन तो गया से ही आ रही है परंतु मैंने सुना है कि गया को जाने वाली एक ट्रेन अभी कुछ देर में ही यहाँ पहुंचने वाली है । तुम इंतजार कर सकती हो"
यह सुनकर वह बच्ची चुपचाप उनके पास वहीं बैठ जाती है परंतु थोड़े ही देर में अचानक वह बड़ी ही तेजी से उठकर स्टेशन पर लगे पानी के टैप को एक के बाद एक खोलने लगती है । शायद उसे प्यासी लगी है तभी उषा उसे आवाज लगाते हुए कहती है
"टैप खोलने से कोई फायदा नहीं है क्योंकि यहां किसी भी टेप में पानी नहीं है आओ मैं बताती हूँ कि तुम्हें पानी कहां मिलेगा"
वह लड़की उसके पास वापस चली आती है तब उषा उससे कहती है
"अभी ट्रेन आने में थोड़ा वक्त है तुम स्टेशन के बाहर चली जाओ वहां एक ठेलेवाला पानी बेच रहा है तुम उससे पानी खरीद लो"
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यह सुनकर बच्ची का चेहरा मुरझा जाता है । वह चुपचाप वहीं बैठ जाती है । उसकी ये हरकत उषा को बड़ी अजीब लगती है उससे रहा नहीं जाता वह लड़की से पूछती है
"क्या हुआ, अब प्यास नहीं लगी क्या ?"
तब लड़की दबी-दबी जुबान में कहती है
"मेरे पास पैसे नहीं है"
यह सुनकर उषा का मन करुणा से भर जाता है हालांकि इस यात्रा में उसने अपने पति की जेब काफी ढीली कर चुकी है इसलिए उसे सतीश से कुछ भी मांगना ठीक नहीं लगता इसलिए वह अपने छोटे से पर्स में से मुड़े मुड़े ₹10 के दो नोट निकालकर उसे देते हुए कहती है
"जाओ पानी खरीद लो"
लड़की ने उषा से पैसे लेकर पानी खरीदा और फिर वापस वहीं आकर बैठ गई । उषा का सारा ध्यान उस लड़की की ओर खींच रहा है । वह उसके बारे में जानने के लिए व्याकुल हो रही है । बातों-बातों में पता चलता है कि लड़की का नाम वृंदा है ।
वृंदा बताती है कि वह गया जा रही है परंतु दूरभाग्वश स्टेशन पर जब ट्रेन रुकी तब उसकी मां सो रही थी । उसे बहुत जोर की प्यास लगी थी इसलिए उसने मां को जगाने का बहुत प्रयास किया परंतु वह नहीं जगी इसलिए वह अकेले ही ट्रेन से उतर कर पानी की तलाशने लगी परंतु इसी बीच कब न जाने ट्रेन वहां से चली गई ।
ऐसा कहते-कहते वृंदा सिसकियां लेने लगी उसके जुबान पर बस एक ही रट थी कि उसे गया जाना है हालांकि उस छोटी बच्ची को गया में अपने घर का सटीक पता भी मालूम नहीं है ।
उषा का मन वृंदा के प्रति करुणा व दया से भर जाता है वह वृंदा की हरसंभव मदद करने के लिए तत्पर हो जाती है ।
उषा के पास कुछ खास पैसे तो नहीं हैं परंतु बचे कुचे पैसों से ही वह वृंदा के लिए गया तक का टिकट कटा देती है किन्तु अब सवाल ये था कि आखिर इतनी छोटी बच्ची इतना लम्बा सफर अकेले कैसे तय करेगी ?
एक तरफ जहां ट्रेनों के आने का समय नजदीक आ रहा है । वहीं उषा का किसी भी नतीजे तक पहुंच पाना काफी मुश्किल हो रहा है हालांकि कुछ ही देर में गया जाने वाली ट्रेन स्टेशन पर आ पहुंचती है । उषा वृंदा का हाथ थामे ट्रेन के पास पहुंच जाती है । वह वृंदा के हाथ में ₹50 देते हुए कहती है हमारी लेटेस्ट (नई) कहानियों को, Email मे प्राप्त करें. It's Free !
"रास्ते में कुछ नाश्ता जरूर कर लेना"
ऐसा कहते हुए इसकी जुबान लड़खड़ा जाती है । उसका गला भर जाता है । वहीं वृंदा की भी आँखें भर आती हैं । वह कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं है हालांकि तिरछी निगाहों से उषा अपने पति को देखे जा रही है । शायद उषा करना कुछ और चाहती है परंतु कर कुछ और रही है जिसमें उसे अपने पति के इजाजत की आवश्यकता है ।
संजोगवश वृंदा के ट्रेन के ठीक सामने उषा की ट्रेन आ खड़ी होती है । उषा का पति उसे ट्रेन में चढ़ने के लिए कहता है मजबूरन उषा वृंदा का हाथ छोड़ अपनी ट्रेन में जा बैठती है । अब नजारा कुछ ऐसा है एक तरफ ट्रेन में बैठी उषा खिड़की से वृंदा की तरफ देख रही है वहीं वृंदा ट्रेन में बैठे-बैठे उषा को निहार रही है ।
थोड़ी ही देर में उषा की ट्रेन सिटी देने लगती है । सिटी के साथ ही वृंदा के प्रति उसकी चिंताएं उषा की धड़कन तेज कर रही हैं थोड़ी ही देर में ट्रेन के पहिए घूमने लगते हैं और उषा, वृंदा की आंखों से ओझल होने लगती है ।
उषा को खुद से दूर जाता देख वृंदा के दोनों हाथ खिड़की से बाहर आ जाते हैं । वह फफक-फफक कर रोने लगती है । उसके आंसु उषा के हृदय में दबी मां के संवेदनाओं को झकझोर देती हैं और फिर वो होता है जो शायद उषा चाहती है ।
उषा आपातकालीन चैन खींचकर ट्रेन को रोक देती है । अब दृश्य बहुत रोचक है, वह अपने एक हाथ में सूटकेस उठाए एवं दूसरे हाथ से अपने पति का हाथ थामे, हवा के वेग से वृंदा के पास पहुंच जाती है ।
उषा, वृंदा को उसके घर तक पहुंचाकर पुनः अपने शहर लौटने के लिए वापस ट्रेन में बैठी है । वो खिड़की से बाहर तेजी से दौड़ रहे हरे-भरे खेतों एवं बिजली के खंबो को निहार रही है ।
यह दृश्य कुछ पहले जैसा ही है परंतु थोड़ा अंतर जरूर है उषा के चेहरे पर प्रसन्नता साफ झलक रही है वह शायद इसलिए क्योंकि उषा को जो खुशी और जो सुकून वृंदा की मदद करके प्राप्त हुआ है । वह चारों धाम की यात्रा में भी उसे नहीं मिल सका था ।
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जो चिंताएं पहलें वृंदा की थी वही चिंताएं अब उषा की बन चुकी थी । उनमें कोई रिश्ता ना होते हुए भी इंसानियत का एक रिश्ता उनके बीच जुड़ चुका था । उषा किसी भी हाल में वृंदा को सही सलामत उसके घर पहुंचाना चाहती थी परंतु विडंबना ये थी कि तीर्थ धाम के लिए पति द्वारा ली गई छुट्टीयां भी अब खत्म होने को थी ।एक तरफ जहां ट्रेनों के आने का समय नजदीक आ रहा है । वहीं उषा का किसी भी नतीजे तक पहुंच पाना काफी मुश्किल हो रहा है हालांकि कुछ ही देर में गया जाने वाली ट्रेन स्टेशन पर आ पहुंचती है । उषा वृंदा का हाथ थामे ट्रेन के पास पहुंच जाती है । वह वृंदा के हाथ में ₹50 देते हुए कहती है हमारी लेटेस्ट (नई) कहानियों को, Email मे प्राप्त करें. It's Free !
"रास्ते में कुछ नाश्ता जरूर कर लेना"
ऐसा कहते हुए इसकी जुबान लड़खड़ा जाती है । उसका गला भर जाता है । वहीं वृंदा की भी आँखें भर आती हैं । वह कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं है हालांकि तिरछी निगाहों से उषा अपने पति को देखे जा रही है । शायद उषा करना कुछ और चाहती है परंतु कर कुछ और रही है जिसमें उसे अपने पति के इजाजत की आवश्यकता है ।
संजोगवश वृंदा के ट्रेन के ठीक सामने उषा की ट्रेन आ खड़ी होती है । उषा का पति उसे ट्रेन में चढ़ने के लिए कहता है मजबूरन उषा वृंदा का हाथ छोड़ अपनी ट्रेन में जा बैठती है । अब नजारा कुछ ऐसा है एक तरफ ट्रेन में बैठी उषा खिड़की से वृंदा की तरफ देख रही है वहीं वृंदा ट्रेन में बैठे-बैठे उषा को निहार रही है ।
थोड़ी ही देर में उषा की ट्रेन सिटी देने लगती है । सिटी के साथ ही वृंदा के प्रति उसकी चिंताएं उषा की धड़कन तेज कर रही हैं थोड़ी ही देर में ट्रेन के पहिए घूमने लगते हैं और उषा, वृंदा की आंखों से ओझल होने लगती है ।
उषा को खुद से दूर जाता देख वृंदा के दोनों हाथ खिड़की से बाहर आ जाते हैं । वह फफक-फफक कर रोने लगती है । उसके आंसु उषा के हृदय में दबी मां के संवेदनाओं को झकझोर देती हैं और फिर वो होता है जो शायद उषा चाहती है ।
उषा आपातकालीन चैन खींचकर ट्रेन को रोक देती है । अब दृश्य बहुत रोचक है, वह अपने एक हाथ में सूटकेस उठाए एवं दूसरे हाथ से अपने पति का हाथ थामे, हवा के वेग से वृंदा के पास पहुंच जाती है ।
उषा, वृंदा को उसके घर तक पहुंचाकर पुनः अपने शहर लौटने के लिए वापस ट्रेन में बैठी है । वो खिड़की से बाहर तेजी से दौड़ रहे हरे-भरे खेतों एवं बिजली के खंबो को निहार रही है ।
यह दृश्य कुछ पहले जैसा ही है परंतु थोड़ा अंतर जरूर है उषा के चेहरे पर प्रसन्नता साफ झलक रही है वह शायद इसलिए क्योंकि उषा को जो खुशी और जो सुकून वृंदा की मदद करके प्राप्त हुआ है । वह चारों धाम की यात्रा में भी उसे नहीं मिल सका था ।
कहानी से शिक्षा | Moral Of This Best Inspirational Story In Hindi
सच्चा सुख परोपकार मे निहित है !
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