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दूसरों की मजबूरी समझे हिन्दी स्टोरी | Helping Behaviour Story In Hindi
स्टेशन पर काफी भीड़ जमा है । सब किसी ट्रेन के आने का इंतजार कर रहे हैं । स्टेशन पर बने बेंच सामानों से लदे पड़े हैं कहीं भी पांव रखने की जगह नहीं है । ऐसे में जिसे जहां जगह मिली वह वही डेरा डाल दिया है तभी ट्रेन के सीटी की आवाज सुनाई पड़ती है । सारे यात्री अपना-अपना बैग कंधो पर टांगे कुछ ऐसी मुद्रा में खड़े हो जाते हैं मानो आर्मी के जवान दुश्मन देश की सेना से दो-दो हाथ करने जा रहे हो ।
ट्रेन के रुकते ही ट्रेन में सबसे पहले घुसने की होड़ मे धक्का-मुक्की शुरू हो जाती है इसी बीच एक नवयुवक सूट बूट और गले में लाल टाई पहने ट्रेन में चढ़ता है । अंदर जाकर वह अपनी आठ नंबर की सीट खोजता है । मगर उस पर तो पहले से ही एक दंपत्ति अपने 8 साल के बेटे और नन्ही रिमझिम के के साथ विराजमान हैं । यह देखते ही नवयुवक का पारा चढ़ जाता है वह उन्हें फौरन सीट छोड़ने को कहता है तब वे दंपत्ति बताते हैं कि
इन कहानियों को भी जरुर पढ़ें | Most Popular Inspirational Hindi Stories
"उन्होंने भी रिजर्वेशन करा रखा है । मगर संजोग से अभी वह कंफर्म नहीं हुआ है चूंकि जाना जरूरी है ऐसे में में वेटिंग टिकट पर ही सफर करने के लिए वे मजबूर हैं"
वे बताते हैं कि उन्हें यात्रा काफी लंबी है ऐसे में खड़े-खड़े जापाना, खासकर के बच्चों का संभव नहीं है ।वे नवयुवकसे अपनी आधी सीट देने का अनुरोध करते हैं ताकि उनके बच्चे बैठकर जा सके । रात होने पर वे स्वंय उसकी सीट छोड़ देने का वादा भी करते हैं ।
परंतु उनकी सारी दलीलें नवयुवक के सामने बेकार जाती हैं नवयुवक काफी तीखे स्वर में उन्हें सीट छोड़ देने के लिए कहता है ।
दंपत्ति फिर भी उसके सामने गिड़गिड़ाते रहते हैं मगर नवयुवक उनकी एक भी नहीं सुनता है और छोटी बच्ची का बांह पकड़ उसे आगे की तरफ फेंक देता है । बच्ची बाल-बाल चोट खाने से बचती है । दंपत्ति समझ जाते हैं कि साहब बड़े आदमी हैं वे छोटे लोगों की मजबूरियों को नहीं समझेंगे ।
असल में नवयुवक काफी जानी-मानी आईटी कंपनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर है ऊंची शिक्षा प्राप्त नवयुवक काफी रौब वाला है वह किसी भी प्रकार के समझौते के मूड में नहीं है । आखिरकार दंपत्ति अपने बच्चों का हाथ पकड़े वहीं ट्रेन में खड़े-खड़े सफर करने लगते हैं ।
ट्रेन सीटी देते हुए कुछ ही पलों में आगे बढ़ जाती है । करीब 1 घंटे का समय बीत चुका है । दंपत्ति के दोनों बच्चे साहब को रहम की निगाह से देखे जा रहे हैं कि जाने कब वह कह देंगे कि आओ बच्चों यहां बैठ जाओ । मगर साहब तो अपने कट शूज से अपने पैर बाहर निकाल पूरी सीट पर पैर फैला कर पेपर पढ़ने में मशरूफ हैं । उन्हें ज़रा भी उन मासूम बच्चों की फिक्र नहीं है ।
कुछ ही देर में नन्ही रिमझिम साहब की सीट में किनारे पर बची थोड़ी सी जगह पर पैरों को मोड़े चुपके से बैठने की कोशिश करती है । मगर साहब उसे भाप जाते हैं और तुरंत ही अपने पैर से उस कोने की जगह को भी भर ढालते हैं । साहब के ऐसा करते ही बैठने की कोशिश कर रही नन्ही रिमझिम सीधी खड़ी हो जाती है ।
इस प्रकार यह खेल कई बार रिमझिम और साहब के बीच चलता रहता है मगर साहब किसी भी हाल में अपनी सीट का थोड़ा सा भी हिस्सा किसी से बाटना नहीं चाहते, और वैसे भी आखिर वह ऐसा क्यूं करें ? आखिर उन्होंने पूरी सीट के पैसे दिए हैं । ऐसे में वह सीट अब उनकी है वह सीट के मालिक हैं । हां मगर यह भी सच है कि जो दंपत्ति अपने बच्चों के साथ खड़ा है उसने भी उस सीट के उतने ही पैसे दिए हैं बस फर्क इतना है कि जो पैसे साहब ने समय से दे दिए वहीं पैसे दंपत्ति ने समय बीत जाने पर दिए ।
वरना आज वे सीट के मालिक होते और तब नजारा कुछ और होता, साहब जो अकड़ में टांगे फैलाएं पेपर पढ़ जा रहे हैं तब वे भी शायद इसी ट्रेन में उनकी तरह ही इंसानियत की उम्मीद लगाए किसी सीट के सामने खड़े होते हैं ।
टी-टी के आने का समय भी हो गया है । टी-टी एक-एक करके सब का टिकट चेक करते है और सामान्य टिकट लेकर आरक्षित डिब्बे में सफर करने वाले लोगों को बाहर खदेड़ रहे हैं । सबका टिकट चेक करते हुए । टी-टी उनके पास पहुंच जाता है और गली में बैठे दंपत्ति को वह जोर से डाँटते हुए कहता है
"यार आने जाने की जगह तो छोड़ दिया करो तुम लोग गली में ही आकर बैठ जाते हो यह भी नही
सोचते हो कि कोई अगर जाना चाहे तो वह कैसे जाएगा"
तब साहब भी उसकी हां में हां मिलाते हुए कहते हैं
टी-टी उस गरीब दंपत्ति से उनका टिकट मांगता है तब वे बताते हैं कि
"उनके पास एक जनरल और दो आरक्षित टिकट है हालांकि आरक्षित टिकट ट्रेन चलने से पहले वेटिंग में ही था । वह कंफर्म नहीं हुआ था इसलिए उन्हें सीट नहीं मिली"
अभी वे, टी-टी से अपनी बात बता ही रहे थे कि तब तक बीच में ही साहब टपक पड़े और बोले
साहब की इन बातों से वह गरीब दंपत्ति घबरा जाता है वह टी-टी और साहब के हाथ जोड़ने लगता है,
"ये मेरी आरक्षित सीट है इसे आप किसी दूसरे को कैसे दे सकते हैं ?"
तब टी-टी कहता है
"ऐसा नहीं है सर, ये सीट आपकी नहीं है आप अपना टिकट दिखाइए"
उनके डांट फटकार के बीच ही उनका जूनियर दबी जुबान में हकलाते हुए उनसे कहता है कि
"साहब माफ करें असल मे मैने आपका टिकट बुक कराने में पहले ही काफी वक्त लगा दिया था और तब तक कन्फर्म टिकट मिलना तो दूर, वेटिंग भी फुल हो चुकी थी । ऐसे में मैं आपका टिकट नहीं करा पाया मुझे डर था कि कहीं आप नाराज होकर मुझे नौकरी से न निकाल दे इसीलिए मैं आपको सच बताने हिम्मत ही नही जुटा पाया"
उनकी सारी बातें टी-टी और वहां मौजूद सभी लोग सुन रहे थे साहब के फोन डिसकनेक्ट करते ही टीटी साहब बोल उठे
साहब के पास टी-टी के सवालो का कोई जवाब नहीं था । उनके चेहरे की रंगत धीरे धीरे कहीं गूम होती गई । माथे से उनके टप टप पसीना चू रहा था । अब वह बिल्कुल खामोश है शायद टी-टी से इंसानियत की आशा कर रहे थे तभी गरीब जोड़ा बीच में बोल उठता है ।
"अरे साहब जाने दीजिए ना, साहब बहुत पढ़े-लिखे मालूम पड़ते हैं ऐसी भूल-चूक तो हर किसी से हो जाती है । कोई बात नहीं हम एडजस्ट कर लेंगे" टी-टी उनकी तरफ देख कर मुस्कुराता है और जाते-जाते साहब से कह उठता है ।
टी-टी के वहां से जाते ही साहब झट से अपना बैग उठाकर कंधे में टांगे हुए और दरवाजे के पास जाकर खड़े हो जाते हैं । थोड़ी ही देर में एक नन्ही सी बच्ची उनका हाथ पकड़ती है वह बच्ची है कोई और नही रिमझिम है जिसे साहब अपनी सीट पर बैठने के लिए एक बीत्ते की जगह भी देना ठीक नही समझते । वह बहुत ही मासूम अंदाज में सीट की तरफ इशारा करते हुए इंजीनियर साहब से कहती है ।
वहा आने के लिए हाथ दिए जा रहे हैं नवयुवक फौरन उनके पास पहुंच जाता है । तब वे साहब से कहते हैं ।
सफलता और सुविधाएं हर किसी को चाहिए परंतु कभी सफलताओं के अन्धकार में हम इतने डूब जाते हैं कि इंसानियत को ही भूल बैठते हैं । हम काफी सख्त हो जाते हैं । हमें किसी के दुख से कोई फर्क नहीं पड़ता हमें लगता है कि वह अपने कर्मों की सजा भोग रहे हैं । हमने अच्छा कर्म किया है, सफलता हासिल की है इसीलिए हमारे हिस्से में दुनिया की सभी सुख सुविधाएं हैं । वहीं अगर दूसरा अभाव में जी रहा है तो उसकी वजह उसके बुरे कर्म है ।
मगर क्या यह सच नहीं कि अगर हम अपनी सुविधाओं में से थोड़ी सी कटौती कर दें तो कई अभाव ग्रस्त लोगों के जीवन में खुशियां लाई जा सकती हैं अगर हम दीपावली में जो दिए जलाते हैं उसमें से ₹10 कम कर दे तो शायद दूसरों के घरों में भी दिवाली मनाई जा सकती है । एक बार ऐसा करके तो देखिए मुझे यकीन है दूसरों को दिए सिर्फ ₹10 बांटकर वह खुशी मिलेगी जो हजारो दिए जला कर के भी नहीं मिली होगी ।
दोस्तों इंसानियत से बड़ी कोई चीज नहीं होती है । दूसरों की भी परिस्थितियों को समझिए वह आज इस स्थिति में चाहे जिस वजह से भी क्यों न हो हमारा फर्ज है कि हम आगे आकर उनकी मदद करें जहां तक हो सके उनके कष्ट को बांटे चाहे सीट शेयर करनी हो चाहे टिफिन और चाहे कुछ और, मिल बांट कर जीने में जो मजा है वह अकेले-अकेले जीने में बिल्कुल नही ।
अहंकार में अंधे न बने दूसरों को भी समझें उनकी मदद करें और उनके साथ जीना सीखें ।
दोस्तों जब इस जिंदगी का ही कोई भरोसा नहीं तो फिर एक ट्रेन के डिब्बे के एक सीट का क्या अहंकार करना किसी को थोड़ी जगह दे देने से अगर उसकी मुश्किलें कुछ कम हो जाती हैं तो ऐसा करने में आखिर जाता ही क्या है । कभी आप ट्रेन में सफर करें और किसी को आस-पास खड़ा देखें तो खुद बुलाकर उसे अपने पास जरूर बिठाएं । मुझे यकीन है कि उस वक्त आपको हमारी यह कहानी याद आएगी और आपको भी वही खुशी मिलेगी जो उस गरीब दंपत्ति ने साहब को बिठाकर प्राप्त की थी।
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कुछ ही पलो में ट्रेन सामने से आती दिखाई देने लगती है चूंकि स्टेशन पर काफी भीड़ है इसलिए अधिकांश यात्रियों को सीट मिलना लगभग मुश्किल लग रहा है जिसके कारण डिब्बे में अपनी सीट पक्की करने के लिए सब की धड़कन तेज हो चुकी है । क्या स्त्री क्या पुरुष क्या बूढ़े क्या जवान सबने ट्रेन में जगह पाने के लिए अपनी-अपनी कमर कस ली है ।ट्रेन के रुकते ही ट्रेन में सबसे पहले घुसने की होड़ मे धक्का-मुक्की शुरू हो जाती है इसी बीच एक नवयुवक सूट बूट और गले में लाल टाई पहने ट्रेन में चढ़ता है । अंदर जाकर वह अपनी आठ नंबर की सीट खोजता है । मगर उस पर तो पहले से ही एक दंपत्ति अपने 8 साल के बेटे और नन्ही रिमझिम के के साथ विराजमान हैं । यह देखते ही नवयुवक का पारा चढ़ जाता है वह उन्हें फौरन सीट छोड़ने को कहता है तब वे दंपत्ति बताते हैं कि
इन कहानियों को भी जरुर पढ़ें | Most Popular Inspirational Hindi Stories
- झूठ का घड़ा ज्यादा दिन नही टिकता
- ताकि, खुबसूरत पल जाया न जाए
- घोड़े की यारी
- मिल गई मां
- मियां की जूती मियां का सर
"उन्होंने भी रिजर्वेशन करा रखा है । मगर संजोग से अभी वह कंफर्म नहीं हुआ है चूंकि जाना जरूरी है ऐसे में में वेटिंग टिकट पर ही सफर करने के लिए वे मजबूर हैं"
वे बताते हैं कि उन्हें यात्रा काफी लंबी है ऐसे में खड़े-खड़े जापाना, खासकर के बच्चों का संभव नहीं है ।वे नवयुवकसे अपनी आधी सीट देने का अनुरोध करते हैं ताकि उनके बच्चे बैठकर जा सके । रात होने पर वे स्वंय उसकी सीट छोड़ देने का वादा भी करते हैं ।
परंतु उनकी सारी दलीलें नवयुवक के सामने बेकार जाती हैं नवयुवक काफी तीखे स्वर में उन्हें सीट छोड़ देने के लिए कहता है ।
दंपत्ति फिर भी उसके सामने गिड़गिड़ाते रहते हैं मगर नवयुवक उनकी एक भी नहीं सुनता है और छोटी बच्ची का बांह पकड़ उसे आगे की तरफ फेंक देता है । बच्ची बाल-बाल चोट खाने से बचती है । दंपत्ति समझ जाते हैं कि साहब बड़े आदमी हैं वे छोटे लोगों की मजबूरियों को नहीं समझेंगे ।
असल में नवयुवक काफी जानी-मानी आईटी कंपनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर है ऊंची शिक्षा प्राप्त नवयुवक काफी रौब वाला है वह किसी भी प्रकार के समझौते के मूड में नहीं है । आखिरकार दंपत्ति अपने बच्चों का हाथ पकड़े वहीं ट्रेन में खड़े-खड़े सफर करने लगते हैं ।
ट्रेन सीटी देते हुए कुछ ही पलों में आगे बढ़ जाती है । करीब 1 घंटे का समय बीत चुका है । दंपत्ति के दोनों बच्चे साहब को रहम की निगाह से देखे जा रहे हैं कि जाने कब वह कह देंगे कि आओ बच्चों यहां बैठ जाओ । मगर साहब तो अपने कट शूज से अपने पैर बाहर निकाल पूरी सीट पर पैर फैला कर पेपर पढ़ने में मशरूफ हैं । उन्हें ज़रा भी उन मासूम बच्चों की फिक्र नहीं है ।
कुछ ही देर में नन्ही रिमझिम साहब की सीट में किनारे पर बची थोड़ी सी जगह पर पैरों को मोड़े चुपके से बैठने की कोशिश करती है । मगर साहब उसे भाप जाते हैं और तुरंत ही अपने पैर से उस कोने की जगह को भी भर ढालते हैं । साहब के ऐसा करते ही बैठने की कोशिश कर रही नन्ही रिमझिम सीधी खड़ी हो जाती है ।
इस प्रकार यह खेल कई बार रिमझिम और साहब के बीच चलता रहता है मगर साहब किसी भी हाल में अपनी सीट का थोड़ा सा भी हिस्सा किसी से बाटना नहीं चाहते, और वैसे भी आखिर वह ऐसा क्यूं करें ? आखिर उन्होंने पूरी सीट के पैसे दिए हैं । ऐसे में वह सीट अब उनकी है वह सीट के मालिक हैं । हां मगर यह भी सच है कि जो दंपत्ति अपने बच्चों के साथ खड़ा है उसने भी उस सीट के उतने ही पैसे दिए हैं बस फर्क इतना है कि जो पैसे साहब ने समय से दे दिए वहीं पैसे दंपत्ति ने समय बीत जाने पर दिए ।
वरना आज वे सीट के मालिक होते और तब नजारा कुछ और होता, साहब जो अकड़ में टांगे फैलाएं पेपर पढ़ जा रहे हैं तब वे भी शायद इसी ट्रेन में उनकी तरह ही इंसानियत की उम्मीद लगाए किसी सीट के सामने खड़े होते हैं ।
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धीरे धीरे ट्रेन को चलते हुए लगभग आठ घंटे बीत जाते हैं । थके हारे दंपत्ति आखिरकार वही गली मे चद्दर बिछाकर बच्चों के साथ बैठ जाते हैं । हालांकि इधर-उधर आने जाने वालों की वजह से उन्हें बार-बार उठना पड़ रहा है । साहब को जब बीच-बीच मैं टॉयलेट वगैरह जाने के लिए उठना पड़ता है तब वे उन पर काफी नाराज होते हैं । अब तो रात हो चुकी है ।
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-----टी-टी के आने का समय भी हो गया है । टी-टी एक-एक करके सब का टिकट चेक करते है और सामान्य टिकट लेकर आरक्षित डिब्बे में सफर करने वाले लोगों को बाहर खदेड़ रहे हैं । सबका टिकट चेक करते हुए । टी-टी उनके पास पहुंच जाता है और गली में बैठे दंपत्ति को वह जोर से डाँटते हुए कहता है
"यार आने जाने की जगह तो छोड़ दिया करो तुम लोग गली में ही आकर बैठ जाते हो यह भी नही
सोचते हो कि कोई अगर जाना चाहे तो वह कैसे जाएगा"
तब साहब भी उसकी हां में हां मिलाते हुए कहते हैं
"हां सर ये लोग तो ऐसे ही होते हैं पता नहीं इनको डब्बे में आने कौन देता है जब देखो ये कहीं भी टाट डाले बैठ जाते हैं । यह भी नहीं सोचते कि ये जगह आने जाने वालो के लिए है, इन्हें तो बस जगह दिखनी चाहिए किसी को कितनी असुविधा होगी, इन सब से इन्हें क्या फर्क पड़ता है"
"उनके पास एक जनरल और दो आरक्षित टिकट है हालांकि आरक्षित टिकट ट्रेन चलने से पहले वेटिंग में ही था । वह कंफर्म नहीं हुआ था इसलिए उन्हें सीट नहीं मिली"
अभी वे, टी-टी से अपनी बात बता ही रहे थे कि तब तक बीच में ही साहब टपक पड़े और बोले
"देखा टी-टी साहब जनरल का टिकट लेकर ये आरक्षित डिब्बे में सफर कर रहे हैं और जिन्होंने आरक्षित का कंफर्म टिकट ले रखा है उन्हे असुविधा पैदा कर रहे हैं । इन्हें तो फौरन जेल भेज देना चाहिए"
साहब की इन बातों से वह गरीब दंपत्ति घबरा जाता है वह टी-टी और साहब के हाथ जोड़ने लगता है,
"नहीं-नहीं साहब ऐसा ना करें हम बहुत गरीब हैं और काफी मुश्किल में भी हैं हमारा जाना बहुत जरूरी था वरना हम इस तरह सफर नहीं करते चूंकि पैसे भी हमारे पास कम थे इसलिए हमने एक ही आरक्षित टिकट करवाया, हमने सोचा था, कि एक आरक्षित और दो सामान्य टिकट लेकर एक ही बर्थ पर बैठकर हम सब चले जाएंगे मगर संजोग से वह अभी तक कंफर्म नहीं हुआ कृपया हमें माफ करें"
तब टी-टी ने बताया कि तुम्हारा टिकट अभी कंफर्म तो नहीं हुआ मगर अब वह आरएसी हो चुका है । जिस पर बैठकर तुम जा सकते हो । जब वह उन्हें आरएसी सीट का नंबर बताने लगते हैं तब संजोगवश वह वही सीट निकलती है जिसपर साहब टांग पसारे सफर का आनंद ले रहे हैं । टी-टी इंजीनियर साहब से सीट छोड़ने को कहता हैं वह बताता हैं कि, यह सीट आरएसी के तौर पर इन्हें दी जा रही हैं यह सुनकर साहब चिढ़ जाते हैं और कहते हैं"ये मेरी आरक्षित सीट है इसे आप किसी दूसरे को कैसे दे सकते हैं ?"
तब टी-टी कहता है
"ऐसा नहीं है सर, ये सीट आपकी नहीं है आप अपना टिकट दिखाइए"
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मगर साहब के पास तो टिकट ही नहीं है क्योंकि टिकट तो उन्होंने अपने जूनियर से कहके करवाया था । जिसकी डिटेल अभी भी उसी के मोबाइल में है लिहाजा वे तुरंत अपने जूनियर को फोन करके वह मैसेज उनके मोबाइल पर फॉरवर्ड करने को कहते हैं । जूनियर उनकी बातों को सुनकर हकलाने लगता है । काफी देर हो जाती है मगर साहब के मोबाइल पर वह मैसेज नहीं पहुंचता है ऐसे में टी-टी अब साहब पर नाराज होने लगता है । तब वे दोबारा अपने जूनियर को फोन करके फटकार लगाते हुए उसे फौरन मैसेज भेजने के लिए कहते हैं ।
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-----उनके डांट फटकार के बीच ही उनका जूनियर दबी जुबान में हकलाते हुए उनसे कहता है कि
"साहब माफ करें असल मे मैने आपका टिकट बुक कराने में पहले ही काफी वक्त लगा दिया था और तब तक कन्फर्म टिकट मिलना तो दूर, वेटिंग भी फुल हो चुकी थी । ऐसे में मैं आपका टिकट नहीं करा पाया मुझे डर था कि कहीं आप नाराज होकर मुझे नौकरी से न निकाल दे इसीलिए मैं आपको सच बताने हिम्मत ही नही जुटा पाया"
उनकी सारी बातें टी-टी और वहां मौजूद सभी लोग सुन रहे थे साहब के फोन डिसकनेक्ट करते ही टीटी साहब बोल उठे
"क्यूं साहब अभी तक तो आप, आरक्षित डिब्बे में सामान्य टिकट लेकर यात्रा करने वालों को जेल भेजने के लिए कह रहे थे मगर आपके पास तो कोई टिकट ही नहीं है । आप तो बिना टिकट यात्रा कर रहे हैं अब आपके साथ मुझे क्या करना चाहिए, मुझे अब ये बताइये"
साहब के पास टी-टी के सवालो का कोई जवाब नहीं था । उनके चेहरे की रंगत धीरे धीरे कहीं गूम होती गई । माथे से उनके टप टप पसीना चू रहा था । अब वह बिल्कुल खामोश है शायद टी-टी से इंसानियत की आशा कर रहे थे तभी गरीब जोड़ा बीच में बोल उठता है ।
"अरे साहब जाने दीजिए ना, साहब बहुत पढ़े-लिखे मालूम पड़ते हैं ऐसी भूल-चूक तो हर किसी से हो जाती है । कोई बात नहीं हम एडजस्ट कर लेंगे" टी-टी उनकी तरफ देख कर मुस्कुराता है और जाते-जाते साहब से कह उठता है ।
"सीखिए इंजीनियर साहब इन से कुछ सीखिए"
टी-टी के वहां से जाते ही साहब झट से अपना बैग उठाकर कंधे में टांगे हुए और दरवाजे के पास जाकर खड़े हो जाते हैं । थोड़ी ही देर में एक नन्ही सी बच्ची उनका हाथ पकड़ती है वह बच्ची है कोई और नही रिमझिम है जिसे साहब अपनी सीट पर बैठने के लिए एक बीत्ते की जगह भी देना ठीक नही समझते । वह बहुत ही मासूम अंदाज में सीट की तरफ इशारा करते हुए इंजीनियर साहब से कहती है ।
"चलिए अंकल आपको पापा बुला लहे हैं"
सामने दंपत्ति अपने बेटे के साथ खड़े हैं वे उन्हें बुलावहा आने के लिए हाथ दिए जा रहे हैं नवयुवक फौरन उनके पास पहुंच जाता है । तब वे साहब से कहते हैं ।
"साहब बस रात भर की बात है अगर आप नाराज न हो तो बस इन दो बच्चों को सीट पर बिठा लें बाकी हम लोग नीचे ही बैठकर चले जाएंगे"
साहब को अपनी किए पर बहुत शर्म महसूस होती है । वह फौरन उस नन्ही सी रिमझिम को अपनी गोद में उठा लेते हैं और सबको साथ लेकर सीट पर बैठ जाते हैं उस सीट पर साहब और दंपत्ति का पूरा परिवार एडजस्ट हो जाता है और फिर दो दिनों तक चलने वाला ये लंबा सफर काफी रोचक और मजेदार हो जाता है ।
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कहानी से शिक्षा | Moral Of This Best Inspirational Story In Hindi
सफलता और सुविधाएं हर किसी को चाहिए परंतु कभी सफलताओं के अन्धकार में हम इतने डूब जाते हैं कि इंसानियत को ही भूल बैठते हैं । हम काफी सख्त हो जाते हैं । हमें किसी के दुख से कोई फर्क नहीं पड़ता हमें लगता है कि वह अपने कर्मों की सजा भोग रहे हैं । हमने अच्छा कर्म किया है, सफलता हासिल की है इसीलिए हमारे हिस्से में दुनिया की सभी सुख सुविधाएं हैं । वहीं अगर दूसरा अभाव में जी रहा है तो उसकी वजह उसके बुरे कर्म है ।
मगर क्या यह सच नहीं कि अगर हम अपनी सुविधाओं में से थोड़ी सी कटौती कर दें तो कई अभाव ग्रस्त लोगों के जीवन में खुशियां लाई जा सकती हैं अगर हम दीपावली में जो दिए जलाते हैं उसमें से ₹10 कम कर दे तो शायद दूसरों के घरों में भी दिवाली मनाई जा सकती है । एक बार ऐसा करके तो देखिए मुझे यकीन है दूसरों को दिए सिर्फ ₹10 बांटकर वह खुशी मिलेगी जो हजारो दिए जला कर के भी नहीं मिली होगी ।
दोस्तों इंसानियत से बड़ी कोई चीज नहीं होती है । दूसरों की भी परिस्थितियों को समझिए वह आज इस स्थिति में चाहे जिस वजह से भी क्यों न हो हमारा फर्ज है कि हम आगे आकर उनकी मदद करें जहां तक हो सके उनके कष्ट को बांटे चाहे सीट शेयर करनी हो चाहे टिफिन और चाहे कुछ और, मिल बांट कर जीने में जो मजा है वह अकेले-अकेले जीने में बिल्कुल नही ।
अहंकार में अंधे न बने दूसरों को भी समझें उनकी मदद करें और उनके साथ जीना सीखें ।
दोस्तों जब इस जिंदगी का ही कोई भरोसा नहीं तो फिर एक ट्रेन के डिब्बे के एक सीट का क्या अहंकार करना किसी को थोड़ी जगह दे देने से अगर उसकी मुश्किलें कुछ कम हो जाती हैं तो ऐसा करने में आखिर जाता ही क्या है । कभी आप ट्रेन में सफर करें और किसी को आस-पास खड़ा देखें तो खुद बुलाकर उसे अपने पास जरूर बिठाएं । मुझे यकीन है कि उस वक्त आपको हमारी यह कहानी याद आएगी और आपको भी वही खुशी मिलेगी जो उस गरीब दंपत्ति ने साहब को बिठाकर प्राप्त की थी।
Writer
Team MyNiceLine.com
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